महावीर प्रभु के निर्वाण की आरती
जय जय जिनराया, स्वामी जय जय जिनराया ।
आरति करूं मन भाया, होय कंचन काया ॥ जय जय ॥
जय जगदीश्वर, अति अलवेशर, वीर प्रभुराया
पतितउधारण, भव भय भंजन, बोध बीज दाया ॥ जय 1॥
क्षत्रीयकुण्ड, नगर अति सुन्दर, सिद्धारथ राया ।
सुदी आषाढ, छठ दिवस, त्रिशला कुक्षे आया ॥ जय- 2 ॥
चवद सुपन, देखी अति उत्तम, निज प्रीतम भाखे ।
अरथ भेद 'सहु' निश्चय करीने, जिनगुण रस चाखे ॥ जय-3॥
चैत्र सुदी, तेरस दिन उत्तम, सहु ग्रह उच्च पावे |
जन्म लेई, दिशकुमरी सहुना, आसन कंपावे ॥ जय-4 ॥
उच्छव कर, जावे निज थानक, इन्द्र सहु आवै ।
मेरुशिखर पर, स्नात्र महोच्छव, करि आनन्द पावे ॥ जय 5 ॥
वसुंधरा वृष्टि, कर सहु सुर, निज थानक जावे ।
सिद्धारथ करे जन्म महोच्छव, हरष सहु पावे ॥ जय 6 ॥
कंचन वरण तेज अति दीपत, सिंह लंछन छाजे ।
कुल इक्ष्वाकु, अंग सहु लक्षण, शशी ज्यूं मुख राजे ॥ जय-7 ॥
दान संवत्सर दे, प्रभु लेवे, चारित्र सुखदाई ।
मार्गशीर्ष, दशमीवद पक्षे, उत्तम तरु पाई ॥ जय-8॥
बार बरस छमस्थ पणां में, दुक्कर तप पाले ।
माघ सुदि दशमीके दिन प्रभु, दोष सहु टाले ॥ जय-9 ॥
केवल पाय सभी सुर संगे, पावापुर आवे ।
गुणगणालंकृत देशना देके, संघ चतुर थापे ॥ जय 10 ॥
भूमंडल बीच बहुत जीवकुं, अविचल सुख देवे ।
सुर नर इन्द्र सभी मिल पूजे, जग में यश लेवे ॥ जय-11 ॥
चरम चौमासा पावापुरी कर, अन्त समय जाणी ।
हस्तिपाल की जीर्ण शाला में, सोल पहर वाणी ॥ जय-12 ॥
पर्यंकासन, छठ छठ तपस्या, एक चित्त गुणधामी ।
कार्तिक कृष्ण अमावस के दिन, शिव कमला पामी ॥ जय-13 ॥
इन्द्रादिक निर्वाण महोच्छव, करि प्रभु गुण गावे ।
देव मुखे गणधर गुरू गौतम, सुणने दुख पावे ॥ जय-14 ॥
वीतराग गुण मन में धारी, अनित्य भाव भावे ।
केवलज्ञान प्रगट हुए ततखिण, सुर नर गुण गावे ॥ जय-15 ॥
पंच कल्याणक आरति शासन, पति की जो गावे ।
शिव सुख लक्ष्मीप्रधान मिलै जब, मोहन गुण पावे ॥ जय-16 ॥
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