यह कथा सिद्धचक्रके माहात्म्यके रूपमें प्रसिद्ध है । सिद्धचक्रके आराधनसे श्रीपालराजाका कुष्ठरोग मिट गया और अनुक्रमसे आठ पत्नियाँ, नौ पुत्र, नो हजार हाथीनौ हजार रथनौ लाख जातिवंत घोडे, नौ क्रोड सैनिक, नौ वर्ष तक निष्कंटक राज्य और नौ भवमें सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त हुई । प्रायः ऐसे सुखकी इच्छासे लोग नवपदका आराधन करते रहे हैं। किन्तु इससे भी एक महत्त्वपूर्ण बात इस कथामें है जिस पर शायद ही किसीका ध्यान जाता होगा और वह है मयणासुंदरीका ‘आपकर्मीका सिद्धांत'। जीव अपने किये हुए शुभ अशुभ कर्म के अनुसार ही सुख-दुःखको प्राप्त होता है इस सिद्धांत पर मयणासुंदरीकी जो अचल श्रद्धा है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण और उपादेय है । इसी श्रद्धा पर वह सहर्ष कुष्ठी को पतिरूपमें स्वीकार करती है और अन्ततः वह अपनी बापकर्मी बहन सुरसुंदरीकी अपेक्षा अत्यधिक सुख-संपत्तिको प्राप्त होती है। कोई क्रिया वन्ध्या नहीं है और अपने किये कर्म जीव को कहीं भी नहीं छोडते, यह जैनधर्मका एक मूलभूत सिद्धांत है और इस पर यथार्थ विश्वास, प्रतीति हो जाये तो जीव किसी भी परिस्थितिमें जैनधर्मसे चलायमान नहीं होगा, दुःखी नहीं होगा, मिथ्यात्वी देवकी मान्यता नहीं करेगा और अपने दुःखके लिये किसीको दोषित नहीं ठहरायेगा । इस कथानकसे यही बात मुख्यरूपसे सीखनी है।

    प्रस्तुत ग्रंथ गुजराती भावार्थ के साथ कई बार छप चुका है और छप रहा है किन्तु उसका हिंदी अनुवाद पहली बार छप रहा है। हिंदीभाषी जैन समाज के लिये यह एक विनम्र प्रयास है। इस किताब के दोनों अनुवाद (हिंदी एवं गुजराती) जैनकार्ट पर उपलब्ध है। आशा है समाज इसका उचित लाभ उठायेगा ।

 

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